Tuesday 28 August 2018


मेरी सुबह
ट्रिंग ट्रिंग..
उफ़..घडी का ये इरिटेटिंग अलार्म...मुझे सुबह की नींद से उठाने के लिए काफ़ी था, आँखों को मसलते हुए उठी, पांच बज़ रहे थे साढ़े छह बजे बच्चो की बस आ जाती है, इन डेढ़ घंटो में मेरे हाथ मशीन की तरह और दिमाग़ कंप्यूटर की तरह चलते है, जल्दी जल्दी बच्चो को उठाना और एक एक करके तैयार करना, बैग पैक, टिफिन पैक और सबसे बड़ा टेंशन जो हर सुबह होती है आयुष का हर दिन का प्रोजेक्ट वर्क से रिलेटेड सामान जो उसे सुबह स्कूल जाने के वक्त याद आता है "आयुष ये सब तुम मुझे कल नहीं बता सकते, अभी दस मिनट में बस आ जायेगी, कहाँ से लाऊ अब ये सारी चीज़ें" मैंने गुस्सा करते हुए बोला।
" माँ आप जल्दी करो वरना स्कूल में डाट तो मुझे पड़ेंगी" मेरी बातों को अनसुना कर अपनी बातो में मुझे उलझा लिया, किसी तरह सभी सामान इकठ्ठा किया " बच्चे तैयार हो गए, लाओ मैं छोड़ देता हूं बस स्टॉप तक" अखिल कमरे से बाहर निकलते हुए बोले " क्या बात है जनाब, बहुत जल्दी उठ गए थोड़ा और सो लेते, छोड़ने का काम भी मैं कर लुंगी बच्चे तो मेरे अकेले के है तो बच्चो के प्रति सारी जिम्मेदारी भी मेरी हुई ना" मैंने अखिल को ताना मारते हुए कहा ।
सारा और आयुष मेरी बात सुनकर हंसने लगे "अरे तुम लोग हंसो नहीं, माँ इस वक्त माँ नहीं रानी लक्ष्मी बाई है, सुबह सुबह माँ से पंगे नहीं लेते बल्कि माँ की हर बात मानते है" अखिल की बात सुन मैं भी हंस पड़ी।
बच्चो के स्कूल जाने के बाद अब अखिल की बारी थी ऑफिस जाने की।
जल्दी जल्दी नाश्ता और टिफिन तैयार किया और अखिल भी ऑफिस के लिए निकल गए, मैं थक कर चूर हो गयी थी वही सोफे पर निढाल हो गयी तभी घड़ी पर नज़र गयी आठ बज़ रहे थे, मैं चौंक कर उठ बैठी और फ़ोन ढूंढने लगी, फ़ोन तो मिल गया पर उसका फ़ोन नहीं लग रहा था, मन में अज़ीब अज़ीब से ख्याल आने लगे, ऐसा तो कभी नहीं होता   उसका फ़ोन तो हमेशा ऑन रहता है, कुछ मैसेज भी नहीं है, इस समय तो उसे मेरे घर पर आ जाना चाहिए ,अखिल के जाते ही उसके लिए दरवाज़ा खोलती हूं और आज अखिल को ऑफिस गए 20मिनट हो गए और उसका कुछ पता ही नहीं।
फिर फ़ोन मिलाया अभी भी फोन स्वीच ऑफ आ रहा था, " हे भगवान मैं आज लड्डू का भोग लगाउंगी प्लीज़ उसे जल्दी भेज दो" हाथ जोड़ते हुए मैंने कहा, उसके बिना ये सब काम कैसे होगा, कैसे करुँगी मैं ये सभी काम "प्लीज़ भगवान प्लीज भेज दो उसे"
वो एक दिन भी ना आये तो मेरा पूरा दिन ख़राब हो जाता है उसके आते ही जो आत्मिक शांति मुझे मिलती है किसी और से आज तक नहीं मिली चाहे वो अखिल ही क्यों ना हो।
सोचते सोचते साढ़े नौ बज़ गए अब मेरे सब्र का बाँध टूटने वाला था आँखों के कोरे में आंसुओ ने अपनी दस्तक दे दी थी तभी डोर बेल बज़ी सहसा मुझे मेरे कानों पर यकीन नहीं आया तभी फिर बेल की आवाज़ आयी मैंने फोन एक तरफ फेंक कर लगभग भागते हुऐ दरवाज़ा खोला, " क्या मैडम सो गयी थी क्या,कब से घंटी पर घंटी बजा रही हूँ और तुम हो की दरवाज़ा ही नहीं खोल रही, अभी नहीं खोलती तो मैं तो वापस जाने वाली थी" उसकी ये तीखी आवाज़ भी मुझे अभी कर्णप्रिय लग रही थी, मैंने झट से उसे गले से लगा लिया " अरी शांता, नाराज़ क्यों होती है सामान समेट रही थी इसलिए घंटी की आवाज़ नहीं सुनी, चल तू अपना काम ख़त्म कर मैं तेरे लिए अदरक वाली चाय बनाती हूँ'
उसको शांत करते अपनी ख़ुशी छुपाते हुए मैंने कहा।
लेखिका
अनामिका अनूप तिवारी

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